प्रो. प्रवीण पचौरी
-भारतीय संस्कृति में होली का पर्व मनाने का धार्मिक व आध्यात्मिक पक्ष
किसी संत ने बिल्कुल सत्य कहा है हरि अनंत हरि कथा अनंता, प्रेम से प्रकट भए भगवंता। ईश्वर प्रेम से प्रकट होता है यह बात होलिका दहन की कहानी से भी साफ होती है, होलिका और हरण कश्यप दोनों ही एक महान ऋषि कश्यप की संतान थे। अध्यात्म विद्या में काफी ऊंचे स्तर को प्राप्त कर चुके थे, लेकिन अहंकार के कारण स्वयं को परमेश्वर से श्रेष्ठ समझ बैठे। अहंकार मन पर हावी हो गया और परमेश्वर की कृपा और वाणी से दूरी बढ़ती चली गई। होलिका जो आध्यात्म की बहुत ऊंची अवस्था, जिसे वज्द़ की अवस्था कहते हैं (जो आनन्दमय कोष में स्थित संतो को ही प्राप्त होती है) इस अवस्था को आसानी से प्राप्त कर जाती थी। इस अवस्था में मनुष्य शरीर ईश्वरमय हो जाता है इसलिए पंचतत्व यानी अग्नि, जल, वायु, आकाश और पृथ्वी (धातु और अधातु) का प्रभाव खत्म हो जाता है क्योंकि अग्नि, अग्नि को नुकसान नहीं पहुंचा सकती, जल, जल को नुकसान नहीं पहुंचा सकता, वायु, वायु को नुकसान नहीं पहुंचा सकती, आकाश तत्व, आकाश तत्व को नुकसान नहीं पहुंचा सकता, इसी प्रकार पृथ्वी तत्व, पृथ्वी तत्व को नुकसान नहीं पहुंचा सकता महात्मा तुलसीदास जी ने बिल्कुल सत्य कहा है ईश्वर कहता है निर्मल जन मन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा। उस विशेष दिन जब होलिका प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठी, उसके मन में कपट का भाव आ गया और वह वज्द़ की उस अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाई अतः अग्नि का उस पर प्रभाव हुआ और वह जल गई लेकिन प्रहलाद जो अध्यात्म की ऊंची अवस्था लेकर प्राप्त हुआ था ईश्वर प्रेम के कारण थोड़ी ही देर में उस अवस्था को प्राप्त कर गया, जिसमें अग्नि जल, वायु, आकाश और पृथ्वी किसी तत्व का कोई प्रभाव नहीं होता। अतः वह सुरक्षित रहा।
यह पर्व भारतीय संस्कृति की अनोखी छठा को प्रस्तुत करता है। इसमें मूलतः अग्नि, जल, सुगंध, रंग और पकवानों का समावेश है। सर्वप्रथम हम लकड़ी की होलिका दहन कर उसकी परिक्रमा करते हैं जिससे उसके तप से हमारे शरीर में जमा मल और विक्षेप बह जाएं और शरीर तथा मन निर्मल हो जाए, प्रसन्न हो जाए। तब हम एक दूसरे को जौ की बालियों के कुछ दाने देते हैं, तिलक चंदन और गुलाल लगाते हैं। जौ के दाने इस बात का प्रतीक है कि मेरी समृद्धि में तुम्हारा भी हिस्सा है, तुम प्रेम से इसे स्वीकार करो, चंदन इत्र अबीर और गुलाल इस बात को प्रदर्शित करते हैं कि सबके जीवन में आनंद की सुगंध व्याप्त हो जाए। हर रंग एक भाव को प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करता है। लाल रंग खुशी और संपन्नता को दर्शाता है, हरा रंग सुख , शांति, और उद्योगशशीलता, नीला रंग बल, पौरुष और वीर भाव, पीला रंग मानसिक और बौद्धिक उन्नति के प्रतीक स्वरूप एक दूसरे के ऊपर डालते हैं, पानी डालते हैं, कहीं-कहीं पर तो कीचड़ भी डालते हैं, ब्रज क्षेत्र की महिलाएं लट्ठ भी मारती हैं। यह प्रतीक है कि मैंने तुम्हारे जीवन रंग भरे हैं तो भी स्वीकार करो यदि कीचड़ डाला है तो उसे भी स्वीकार करो, यदि जाने अनजाने में चोट पहुंचाई हो तो उसे भी भूलाकर जीवन के रंगों का आनंद लो। यही जीवन का सत्य है। इस सब के बाद निश्चित रूप से तुम्हें थकान होगी। आओ मेरे मित्र, स्वजन, प्रेमीजन आओ, हे मनुष्य स्वरूप परमेश्वर आओ अपनी सामर्थ्य के अनुरूप जो मुझसे बन पड़ा मैंने आपके समझ प्रस्तुत किया है आप इसे स्वीकार करो। जब सब भोजन पाकर तृप्त हो जाते हैं, शरीर और मन निर्मल हो जाते हैं अर्थात भौतिक सूक्ष्म और कारण तीनों शरीर शांत और पवित्र हो जाते हैं, तब हर जीव विश्राम करना चाहता है जिससे नई ऊर्जा को प्राप्त कर आने वाले वर्ष में स्वयं को संघर्ष के लिए तैयार कर सके। शरीर स्वयं को बेहद हल्का महसूस करने लगता है आत्मा निर्मल भाव से सभी में ईश्वर तत्व को देखता है और सर्वत्र प्रेम और उल्लास का वातावरण बन जाता है और मनुष्य संत एकनाथ जी के शब्दों को आत्मसात कर लेता है, माला फेरूं ना जप करूं, मुख से कहूं ना राम, मेरा सुमिरन हरि करें, मैं करूं विश्राम।
(साभार-प्रो. प्रवीन पचौरी)