भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं जो सत्य और साहस के मार्ग को प्रकाशित करते हैं। ऐसे ही एक प्रकाश पुंज हैं श्री गणेश शंकर विद्यार्थी। 26 अक्टूबर, 1890 को इलाहाबाद में जन्मे, विद्यार्थी जी की यात्रा न्याय और समानता के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता से चिह्नित थी। 25 को हम उनके बलिदान दिवस के रूप में मानते है। वे एक महान पत्रकार, समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी थे। उनकी विरासत आज भी भारतीय समाज, राजनीति और पत्रकारिता में प्रेरणास्पद है।
गणेश शंकर विद्यार्थी ने पत्रकारिता को एक मिशन के रूप में अपनाया। उनका समाचार पत्र ‘प्रताप’ स्वतंत्रता संग्राम की आवाज बना। वे अपने लेखन के माध्यम से समाज में जागरूकता और चेतना लाने का प्रयास करते थे। उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। हिंदी समाचार पत्र प्रताप के संस्थापक-संपादक के रूप में, उन्होंने ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन और सामाजिक अन्यायों के खिलाफ लड़ाई में कलम की शक्ति का उपयोग किया। उनका समाचार पत्र दलितों, मजदूरों, किसानों की चिंताओं को आवाज देने और स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों के लिए एक प्रकाश स्तंभ बन गया।विद्यार्थी की सक्रियता केवल उनके समाचार पत्र के पृष्ठों तक सीमित नहीं थी। वे अपने समय के राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में गहराई से शामिल थे।
1916 में, उन्हें लखनऊ में गांधीजी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यह मुलाकात विद्यार्थी जी के जीवन में एक नया दृष्टिकोण लेकर आई। विद्यार्थी जी गांधीजी के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए सड़कों पर उतर आए। उन्होंने स्वयं को ब्रिटिश द्वारा बोए गए सांप्रदायिक विभाजन के बीजों से निरंतर लड़ने के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को दशहरा और मुहर्रम के दौरान मस्जिदों और मंदिरों के पास ढोल बजाने से बचने की दृढ़ता से सिफारिश की।भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में, असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। उनके नेतृत्व और संगठनात्मक कौशल तब प्रमाणित हुए जब उन्होंने उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के रूप में सेवा की और उत्तर प्रदेश में सत्याग्रह आंदोलन का नेतृत्व किया।
उन्होंने मजदूरों के अधिकारों की वकालत करने के लिए मजदूर सभा की स्थापना की और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एकता को बढ़ावा देने के लिए हिंदुस्तानी बिरादरी नामक संगठन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कानपुर में सांप्रदायिक दंगों के दौरान शांति बनाए रखने के लिए उनके प्रयास उनकी सामाजिक सामंजस्य के प्रति प्रतिबद्धता का प्रमाण हैं। इसी प्रकरण में उनकी मृत्यु हुई ।
कानपुर दंगों में गणेश शंकर विद्यार्थी जी की मृत्यु की परिस्थितियों ने कई प्रश्न उठाए हैं। कानपुर समाज के सभी वर्गों में उनके व्यापक सम्मान को देखते हुए, यह संभावना नहीं है कि वह केवल एक दंगाई समूह द्वारा मार दिए गए। 1930 तक प्रताप उपनिवेशीय भारत के उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक प्रसारित समाचार पत्र बन गया था। विद्यार्थी जी एक प्रमुख नेता थे, और उम्मीद की जाती है कि बचाव प्रयासों में, उनके साथ स्थानीय समुदाय के नेता होंगे जो उनकी रक्षा करेंगे। उनके चाकू से गोदे गए शरीर का कई घंटे बाद मिलना असामान्य है और सुझाव देता है कि उनकी हत्या सामान्य दंगा हिंसा का परिणाम नहीं थी। क्या यह संभव है कि उपनिवेशीय अधिकारियों ने उन्हें पेशेवर हत्यारों के साथ लक्षित किया हो, उन्हें अलग-थलग करके हत्या की हो, जैसा कि उनकी बेटी विमला विद्यार्थी ने अपने कई साक्षात्कार में उल्लेख किया है।
वे कांग्रेस पार्टी के एक प्रमुख नेता थे फिर भी उनका भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद (हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन) के नेतृत्व वाले क्रांतिकारी समूह के साथ घनिष्ठ संबंध था। वे क्रांतिकारी आंदोलन के एक मार्गदर्शक और समर्थक थे। उनके समाचार पत्र का कार्यालय चंद्रशेखर आज़ाद, बटुकेश्वर दत्त और अन्य जैसे क्रांतिकारियों के लिए एक केंद्र बिंदु बन गया। विद्यार्थी के मार्गदर्शन में ही भगत सिंह ने चंद्रशेखर आज़ाद से मुलाकात की, जो स्वतंत्रता की लड़ाई में महत्वपूर्ण पड़ाव बन गया। उन्होंने न केवल अपने समाचार पत्र में क्रांतिकारी विचारों को स्थान दिया बल्कि ब्रिटिश निगरानी से बचने वालों के लिए वित्तीय सहायता और सुरक्षित ठिकाने भी प्रदान किए। उनका क्रांतिकारी आंदोलन में योगदान अमूल्य था, जिसने उस समय के युवा स्वतंत्रता सेनानियों को आवाज और समर्थन प्रदान किया।
आज के युग में, पत्रकारिता समाज और सरकार के मध्य एक पुल का निर्माण कर रही है और साथ ही एक एजेंडा निर्धारित करने में भी भूमिका निभा रही है। बाजार में अपनी प्रभुता बनाए रखने और प्रसार संख्या को बढ़ाने के लिए, कई समाचार पत्र सनसनीखेज खबरों को प्रोत्साहन दे रहे हैं, जिससे पत्रकारिता की नैतिकता का ह्रास हो रहा है। इसके परिणामस्वरूप, समाचार पत्र धीरे-धीरे पाठकों की नजरों में अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं, जो कि एक सभ्य और विकासशील समाज के लिए अशुभ संकेत है। एक पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी के रूप में, जिनका जीवन सांप्रदायिक सद्भाव और राष्ट्रवादी उत्साह के आदर्शों का एक प्रमाण था; उनकी विरासत को क्यों पत्रकार भूल रहे हैं ? आज के दौर में, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार हिंदी पत्रकारिता और साहित्यिक रचनाओं में असाधारण योगदान देने वाले व्यक्तियों को प्रदान किया जाता है। यह पुरस्कार भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त होता है। अब वक्त आ गया है कि पत्रकार और समाज मिलकर यह आत्ममंथन करें कि क्या केवल पुरस्कार ही हमारी उस महान आत्मा को सच्ची श्रद्धांजलि है या हमें इससे आगे भी कुछ नैतिक दायित्व निभाने हैं। इस लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में, हमें न केवल विभिन्न विचारधाराओं को सामने रखना है, बल्कि जनता को सही निर्णय लेने के लिए शिक्षित भी करना है। साथ ही, हमें नैतिक और सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करना है।
(साभार-डॉ. नीना सिन्हा
प्राध्यापक, गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी दिल्ली)