आचार्य रविकान्त दीक्षित
महर्षि पाणिनी वेद-वेदांग विद्यापीठ गुरुकुल
ग्रेटर नोएडा
शिव की साधना से संसार में धन-धान्य, सुख-सौभाग्य, और समृद्धि की कमी कभी नहीं होती। भक्ति और भाव से स्वतः के लिए तो करना ही चाहिए साथ ही जगत के कल्याण के लिए भगवान आशुतोष की मनसा, वाचा, कर्मणा हमें आराधना करनी चाहिए। भगवान भोलेनाथ नीलकण्ठ हैं, विश्वनाथ है। शिव आराधना के लिए महाशिवरात्रि सर्वोत्तम पर्व है। सनातन धर्म में मासिक शिवरात्रि मनाने का विधान है, लेकिन फाल्गुन मास की कृष्णपक्ष त्रयोदशी में आने वाली महाशिवरात्रि का विशेष महत्व होता है। इस पर्व पर व्रत और भगवान शिव की पूजा करना बहुत शुभ माना जाता है। माना जाता है कि इसी दिन भगवान शिव और पार्वती का विवाह हुआ था। यही शिव और शक्ति का मिलन ही रात्रि है। ऐसे भूतनाथ पशुपति जो एकमात्र ‘जगदीश’ की पदवी धारण करते हैं, इसका क्या कारण है? यह महत्व उन्हें कैसे मिला, यह केवल पार्वती से पाणिग्रहण का फल है। उनके साथ विवाह होने से ही शिव का महत्व बढ़ गया और उनमें जीवंतता तब आयी जब ऊर्जा रूप में पार्वती का भौतिक तत्व में मिलन हुआ और वही भौतिक पदार्थ कल्याणकारी हो गया। शिव शव के रूप में भौतिक पदार्थ होते हैं और पार्वती की चेतन-शक्ति हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस दिन सृष्टि की शुरुआत अग्निलिंग (जो कि महादेव का विराट रूप है) के उदय से हुई थी। शिवरात्रि के दिन उपवास रखकर प्रदोष काल से प्रारंभ कर रात्री के चारों पहरों में देवालय या स्वयं के घर में भगवान आशुतोष के लिंग का पूजन और अभिषेक वेद मंत्रों से करना चाहिए, क्योंकि कहा गया है ‘वेदः शिवः शिवो वेदः’ वेद शिव हैं और शिव वेद हैं अर्थात् शिव वेदस्वरूप हैं। शिवपुराण में सनकादि ऋषियों के प्रश्न करने पर स्वयं शिवजी ने रुद्राष्टाध्यायी के मन्त्रों द्वारा अभिषेक का माहात्म्य बतलाते हुए कहा है कि मन, कर्म तथा वाणी से परम पवित्र तथा सभी प्रकार की आसक्तियों से रहित होकर भगवान् शूलपाणि की प्रसन्नता के लिये रुद्राभिषेक करना चाहिये। इससे जीव भगवान् शिव की कृपा से सभी कामनाओं को प्राप्त करता है और अन्त में परम गति को प्राप्त होता है। शिवलिंग भगवान शिव का सबसे प्राचीन प्रतीक है। जहाँ आप निराकार से आकार की और बढ़ते हैं। यह ब्रम्हांड और ब्रम्हांड के प्रतिनिधित्व का प्रतीक है। शिवलिंग का अर्थ सिर्फ़ शिव का होना ही नहीं है अपितु यह मूक रूप से प्रकट होने वाली और सदा गतिमान रहने वाली उस परम चेतना का भी प्रतीक है। हमारे धर्म शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि महाशिवरात्रि का व्रत करने वाले साधक जगत में रहते हुए मनुष्य का कल्याण करने वाला व्रत है। इस व्रत को रखने से साधक के सभी दुखों, पीड़ाओं का अंत तो होता ही है साथ ही मनोकामनाएं भी पूर्ण होती है।
‘शिव’ और ‘रुद्र’ ब्रह्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। शिव को रुद्र इसलिये कहा जाता है- ये ‘रुत्’ अर्थात् दुःख को विनष्ट कर देते हैं- ‘रुतम्-दुःखम्, द्रावयति-नाशयतीति रुद्रः’। रुद्र भगवान् की श्रेष्ठता के विषय में रुद्रहृदयोपनिषद् में इस प्रकार लिखा है— सर्वदेवात्मको रुद्रः सर्वे देवाः शिवात्मकाः। रुद्रात्प्रवर्तते बीजं बीजयोनिर्जनार्दनः। यो रुद्रः स स्वयं ब्रह्मा यो ब्रह्मा स हुताशनः॥ ब्रह्मविष्णुमयो रुद्र अग्नीषोमात्मकं जगत्॥ इस प्रमाण के अनुसार यह सिद्ध होता है कि रुद्र ही मूलप्रकृति-पुरुषमय आदिदेव साकार ब्रह्म हैं। वेद विहित यज्ञपुरुष स्वयम्भू रुद्र हैं। महाशिवरात्रि पर्व का विशेष कारण यही भी है कि मनुष्य का मन विषयलोलुप होकर अधोगति को प्राप्त न हो और व्यक्ति अपनी चित्तवृत्तियों को स्वच्छ रख सके – इसके निमित्त रुद्र का अनुष्ठान (रुद्राभिषेक) करना मुख्य और उत्कृष्ट साधन है। यह रुद्रानुष्ठान प्रवृत्ति-मार्ग (संसार) से निवृत्ति-मार्ग (मोक्ष) को प्राप्त कराने में समर्थ है। इस व्रत को करने से जहाँ लोक में जप, पाठ तथा अभिषेक आदि साधनों से भगवद्भक्ति, शान्ति, पुत्र-पौत्रादिकी वृद्धि, धन-धान्यकी सम्पन्नता तथा सुन्दर स्वास्थ्यकी प्राप्ति होती है; वहीं परलोक में सद्गति एवं परमपद (मोक्ष) भी प्राप्त होता है।
आदिगुरु शंकराचार्य जी ने महिम्नस्तोत्र में शिव की स्तुति करते हुए कहते हैं – महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः। अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्॥ शिव (महेश) से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, महिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोई स्तोत्र नहीं, ॐ से बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरु से उपर कोई सत्य नहीं। शिव ही विश्व के आधार और सत्य हैं।